Sunday, July 11, 2010

नहीं तो क्या होगा अंजाम


अगर सुरसा के मुंह की तरह यूं ही बढ़ती रही आबादी तो क्या होगा अंजाम? इसलिए जरूरत है अब भी चेत जाने की। हमें सीमित परिवार रखने के लिए 'हम दो हमारे दो' के स्थान पर 'हम दो हमारा एक' का नारा देना होगा। देश की 1.2 अरब आबादी के साथ 11 जुलाई को हम विश्व जनसंख्या दिवस मनाने जा रहे हैं। अब जरूरत है जनसंख्या विस्फोट पर कानून बनाए जाने की।
'धरती कहती है मानव से सुख का सच्चा पथ अपनाओ, जनसंख्या का भार बढ़ा है अब न इसे तुम और बढ़ाओ'

Friday, April 23, 2010

क्यों रूठ गईं मां



किसी ने कल्पना भी न की होगी कि गंगा मैया के ये दिन भी देखने पड़ेंगे। जिस नदी से तीर्थराज प्रयाग की पहचान है, उसी का यह रूप कैसे हो गया। आखिर क्यों रूठ गईं मां? अगर गंगा को सदा साफ रखा जाता, प्रदूषित न होने दिया जाता, फैक्ट्री का गंदा पानी न गिराया जाता तो आज क्या ये दिन देखने को पड़ता? अब यहीं विनती है कि जैसे भी हो सके गंगा को बचाओ।

Saturday, March 27, 2010

ताकि रोशन रहे दुनिया


अंधेरे में रहना किसे अच्छा लगता है, पर यह अंधेरा धरती की बेहतरी के लिए हो तो यह कदम सचमुच ही तारीफ़ के काबिल है। धरती को ग्लोबल वार्मिग के खतरे से बचाने की इस मुहिम के तहत एशिया, प्रशांत, मध्य-पूर्व और अमेरिका समेत दुनिया के 150 से अधिक देशों के हजारों शहर आज 27 मार्च यानी शनिवार की रात एक घंटे के लिए अंधेरे में डूब जाएंगे।

2007 में आस्ट्रेलिया के सिडनी से शुरू इस जन अभियान को अर्थ आवर 60 का नाम दिया गया है। इसमें 60 अंक, 60 मिनट की उस अवधि की ओर इशारा करता है, जब सारे घरों और इमारतों की बत्तियां बुझी रहेंगी।

तो आप भी अपने घरों, आफिस या दुकानों की बत्तियां बुझा कर पर्यावरण को बचाने की मुहिम में योगदान दें, ताकि रोशन रहे दुनिया। कृपया धरती की सेहत की खातिर रात 8.30 से 9.30 के बीच कैंडिल लाइट डिनर लेने का कष्ट करें।

Monday, March 22, 2010

बहाएं नहीं, बचाएं पानी


'जल ही जीवन है' के मायने अगर हम आज नहीं समझे तो भावी पीढ़ी बूंद-बूंद को तरसेगी। भू-गर्भ जल वैज्ञानिकों की माने तो मौजूदा व भावी जल संकट से निजात पाने के लिए भू-गर्भ जल का सिर्फ दोहन हीं नहीं इसे रीचार्ज भी करना होगा।

दुखद स्थिति यह है कि 'वाटर हार्वेस्टिंग' के प्रति न तो आम जनता सचेत है और न ही शासन-प्रशासन चिंतित। वर्षा जल का 80 फीसदी हिस्सा समुद्र में बह रहा है। इसे रोकने के लिए कंटूर, गार्डवाल, चेक डैम, रीचार्ज पिट आदि का निर्माण नहीं हुआ तो धरती सूख जाएगी, इसके बाद की परिकल्पना सहजता से की जा सकती है।

इसे भी जानें
-पेयजल आपूर्ति व स्वच्छता विभाग के मानदंडों पर गौर करें तो झरना, वाश व बाथ बेसिन, शेविंग, ब्रश करने आदि के अत्याधुनिक तरीके औसत से सौ गुना से भी अधिक जल की बर्बादी करते हैं।
- स्नान करने के क्रम में लगातार झरना बहाने से नब्बे लीटर पानी बहता है। साबुन लगाते समय झरना बंद कर देने से सत्तर लीटर पानी बचाया जा सकता है।
-ब्रश करते समय चलता हुआ नल पांच मिनट में पैंतासील लीटर पानी बहाता है। मग का इस्तेमाल कर 44.5 लीटर पानी की बचत की जा सकती है।
- हाथ धोने के दौरान खुला नल दो मिनट में 18 लीटर पानी बहाता है। हाथ धोने में मग के इस्तेमाल से 17.75 लीटर पानी बचाया जा सकता है।
- शेविंग के वक्त बहता हुआ नल दो मिनट में 18 लीटर पानी बहाता है। मग से शेविंग कर 16 लीटर पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है।
-सौ वर्गफीट की छत से 10 लोगों को पानी बरसात के दिनों में यदि हम सौ वर्गफीट की छत का पानी संचय करते हैं, तो पूरे एक साल तक आठ से 10 लोगों को प्रतिदिन 213 लीटर पानी मिल सकता है।

वर्षा जल संग्रहण मामले के विशेषज्ञों के मुताबिक यदि किसी वर्ष औसतन 1300 मिमी. बारिश होती है तो 'वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम' अपनाकर सौ वर्गफीट के छत से प्रतिवर्ष एक लाख 30 हजार लीटर पानी संचित किया जा सकता है। अलबत्ता, वाष्पीकरण के बाद इस जल का 60 फीसदी हिस्सा ही भू-गर्भ में प्रवेश करता है। फिर भी यह एक परिवार को पूरे साल पानी पिलाने में सक्षम है।

Saturday, March 6, 2010

कुछ तो शर्म करो

आश्रम में मची भगदड़ और उसमें मारे गए बच्चों व महिलाओं के परिजन भले ही गहरे शोक के सागर में डूब गए हों, पर कृपालु महाराज और उनकी मंडली को जरा सा भी पछतावा नहीं है। ये महाशय इस घटना में मारे गए लोगों के परिजनों के जख्मों पर मलहम लगाने के बजाय उस पर नमक डालने का काम कर रहे हैं। कृपालु का कहना है कि लोग अपनी मौत के जिम्मेदार खुद हैं, वहीं आश्रम के एक डाक्टर ने इसके लिए ईश्वर को दोषी ठहराने से भी गुरेज नहीं किया।

डाक्टर का कहना है कि जिस तरह भगदड़ मची थी, उससे कई लोगों की जानें जा सकती थी पर प्रशासन की चौकसी से कई जानें बचाई जा सकीं। यह भगवान की ही लीला थी, जो यह हादसा हुआ। प्रशासन की बयानबाजी से सुनने व पढ़ने वालों को भले ही शर्म आ जाए, पर क्या करूं शर्म इन्हें तो आती नहीं। प्रशासन का कहना है कि अच्छा हुआ जो महिलाएं और बच्चे अधिक मरे। भगवान का शुक्र है कि उन्होंने बड़े व बुजुर्ग लोगों को बचा लिया।

कृपालु ने कहा कि लोग अपनी मौत के जिम्मेदार खुद हैं। हमने किसी को भी नहीं बुलाया, बल्कि वो अपनी मर्जी से यहां आए थे। इनको पता तो तब चलता, जब इनके सगे-संबंधी मारे जाते। ये वहीं कृपालु है जिनपर दुष्कर्म व यौन शोषण का आरोप भी लग चुका है।

मनगढ़ हादसे पर सियासत भी तेज हो गई है। पर इस हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों के जख्म कैसे भरेंगे। कोई इस पर अफसोस जताएगा तो कोई निंदा करेगा पर इससे क्या होगा। कैसे भरेंगे जख्म।

Friday, March 5, 2010

तो न मचती भगदड़

एक तरफ लालच, दूसरी तरफ अव्यवस्था। यही लालच और अव्यवस्था उनके लिए काल बन गया। आस्था का सैलाब पलक झपकते ही मातम में बदल गया। संत कृपालु महाराज के भक्तिधाम मंदिर आश्रम में थाली, रुमाल और बीस रुपये के नोट के लिए मची होड़ में इस कदर अव्यवस्था फैली कि भगदड़ मच गई। चीख-पुकार के बीच लोग एक-दूसरे पर गिरने लगे, रौंदने लगे। देखते ही देखते वहां लाशें बिछ गई। मौका था कृपालु महाराज की पत्‍‌नी की बरसी पर भंडारे का।

थाली, रुमाल और बीस रुपये के नोट का लालच उनके लिए मौत का संदेश लेकर आया। इन्हें हासिल करने के लिए ही कृपालु महाराज के आश्रम में सुबह से ही भीड़ जुटना शुरू हो गई थी। लोगों को संभालना मुश्किल हो रहा था। तेज धूप ने लोगों में बेचैनी बढ़ी और इससे लोहे के गेट पर बोझ बढ़ता गया। महिलाएं अपने साथ बच्चों को इसलिए लेकर आई थीं, ताकि वे तीन-तीन, चार-चार थालियां हासिल कर सकें। यही लालच और अव्यवस्था उनके लिए काल बन गया।

इतने बड़े आयोजन के लिए न तो प्रशासन से अनुमति ली गई, और न ही प्रशासन को सूचना ही दी गई। कार्यक्रम स्थल पर फायरब्रिगेड या एंबुलेंस की एहतियाती व्यवस्था नहीं की गई। अगर इतने बड़े आयोजन से पहले आश्रम की ओर से पुख्ता व्यवस्था की जाती तो न तो भगदड़ मचती न उनकी जान न जाती। न बच्चे अनाथ होते, न वो विधवा होती और न ही उनके जिगर के टुकड़ों की जान जाती..

Friday, February 19, 2010

तो बहू कहां से लाओगे

अगर इसी तरह लोग बेटी को गर्भ में मारते रहे तो वह दिन दूर नहीं, जब उन्हें घर में बहू लाने के लिए तरसना पड़ जाए। जब कन्याएं ही नहीं रहेंगी तो लोग कैसे होगी कंजक पूजा।
बेटी को अनचाही बनाने में सबसे बड़ा दानव दहेज है, वहीं काफी हद तक समाज की वो मानसिकता भी दोषी है जो लड़की को सामाजिक व आर्थिक तौर पर कमजोर आंकती है। बेटी के नाम पर कसमें खाने वाले ही उसे पीडा दे रहे हैं। पाखंडी व आडंबरी समाज अपनी जननी को ही जडों से उखाड फ़ेंकने पर आमादा है। बेटी के नाम पर सौ-सौ कसमें खाने वाले ही उसे पीडा दे रहे हैं। बेटी को पराई कहने वालों ने कभी उसे हृदय से स्वीकार किया ही नहीं। दु:खद पहलू यह है कि बेटी का शोषण की शुरुआत हमारे घराें से होती हुई समाज में फैल रही है। मानवता के दरिंदें तो लडक़ी के जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या करने से भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। 'बालिका बचाओ' व सशक्तिकरण विषय पर चर्चाएं व सेमीनार तो बहुत होते हैं लेकिन जमीनी स्तर पर बेटियां आज भी 'बेचारी' हैं। हमने उन्हें अबला बनाया है संबल कभी नहीं दिया। बच्चियों के खान-पान से लेकर शिक्षा व कार्य में उनसे भेदभाव होना हमारे समाज की परंपरा बन गई है। दु:खद है कि इस परंपरा के वाहक अशिक्षित व निम्न व मध्यम वर्ग ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी उसी परंपरा की अर्थी को ढो रहा है। कितना शर्मनाक है कि पूरे देश व हमारे जम्मू-कश्मीर में कई मां-बाप अभी तक बेटी को शिक्षित करने में कोई रुचि नहीं दिखा रहे हैैं। उन्हें घूट-घूट कर घर में रहने के लिए मजबूर होना पड रहा है। घर से शुरू होने वाले शोषण की वे बाद में इतनी आदि हो जाती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को भी वे परिवार के लिए हंस कर सहन करती हैं। यह वास्तव में विडंबना है कि हमारे देश के सबसे समृध्द राज्याें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। बालिका भूण हत्या की प्रवृत्ति सबसे अधिक अमानवीय असख्य और घृणित कार्य है। पितृ सत्तात्मक मानसिकता और बालकाें को वरीयता दिया जाना ऐसी मूल्यहीनता है, जिसे कुछ चिकित्सक लिंग निर्धारण परीक्षण जैसी सेवा देकर बढावा दे रहे हैं। यह एक चिंताजनक विषय है कि देश के कुछ समृध्द राज्याें में बालिका भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति अधिक पाई जा रही है। देश की जनगणना-2001 के अनुसार एक हजार बालकाें में बालिकाओं की संख्या पंजाब में 798, हरियाणा में 819 और गुजरात में 883 है, जो एक चिंता का विषय है। इसे गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। कुछ अन्य राज्याें ने अपने यहां इस घृणित प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक प्रभावकारी कदम उठाए जैसे गुजरात में 'डीकरी बचाओ अभियान' चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्याें में भी योजनाएं चलाई जा रही हैं। यह कार्य केवल सरकार नहीं कर सकती है। बालिका बचाओ अभियान को सफल बनाने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी बहुत ही जरूरी है। देश में पिछले चार दशकाें से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष 1981 में एक हजार बालकाें के पीछे 962 बालिकाएं थीं। वर्ष 2001 में यह अनुपात घटकर 927 हो गया, जो एक चिंता का विषय है। यह इस बात का संकेत है कि हमारी आर्थिक समृध्दि और शिक्षा के बढते स्तर का इस समस्या पर कोई प्रभाव नहीं पड रहा है। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के लिए साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की 138वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लडक़ियाें को लडक़ाें के समान महत्व नहीं मिलता। लडक़ा-लडक़ी में भेदभाव हमारे जीवनमूल्याें में आई खामियाें को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्याें में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजाें में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में सैक्स रैशो में सुधार और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच करवा उसकी हत्या करने वाले लोगाें के बारे में जानकारी देने वाले को 10 हजार रुपए की नकद इनाम देने की घोषणा की गई है। प्रत्येक प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग को ऐसा सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। प्रसूति पूर्व जांच तकनीक अधिनियम 1994 को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। भ्रूण हत्या को रोकने के लिए राज्य सरकारों को निजी क्लीनिक्स का औचक निरीक्षण व उन पर अगर नजर रखने की जरूरत है। भ्रूण हत्या या परीक्षण करने वालों के क्लीनिक सील किए जाने या जुर्माना किए जाने का प्रावधान की जरूरत है। फिलहाल इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को 25 हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को 20 हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं। बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुध्द देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है। बालिकाओं के सशक्तिकरण में हर प्रकार का सहयोग देने की जरूरत है। इस काम की शुरूआत घर से होनी चाहिए।