Tuesday, September 30, 2008

कब लेंगे सबक

अगर पिछली घटनाओं से सबक लिया जाता तो आज फिर श्रद्धालुओं की जयघोष मौत की चीखों में तब्दील न होती।

इसे मंदिर प्रशासन की लापरवाही कहें या सरकार की। लेकिन राजस्थान के जोधपुर में मेहरानगढ़ किले के पास स्थित चामुंडा देवी मंदिर में मंगलवार सुबह मची भगदड़ में जिन 185 लोगों की जान चली गई क्या वह लौट आएंगे?

ये तो जग जाहिर है कि पहले और अंतिम नवरात्रों को मंदिरों में भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। ऐसे में कोई अनहोनी भी हो सकती है। क्योंकि हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में स्थित नयना देवी मंदिर में श्रावणी नवरात्र के दूसरे दिन अफवाह के चलते मची भगदड़ में कई लोगों की मौत हो गई थी। इसलिए उसे इस तरह की अनहोनी को रोकने के लिए चौकस रहना चाहिए था।


फिर भी प्रशासन सोता रहा। एक घंटे तक उसे हादसे का पता ही नहीं चला। पुलिस एक तो देर से पहुंची और फिर भीड़ को नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज कर दिया। फिर क्या था भगदड़ मच गई और कईयों की जान चली गई। क्या लाठीचार्ज से भी कभी भीड़ नियंत्रित हुई है?

एक बात और है कि श्रद्धालुओं में भी धैर्य कम हो रहा है, इसे समझने की जरूरत है। आखिर लोगों में जल्दबाजी की होड़ इतनी तीव्र क्यों हो जाए कि पैरों के नीचे गिरती मासूम जानें किसी को नजर ही न आएं?

आस्था के नाम पर सब कुछ अर्पण करने का माद्दा दिखाने का दावा करने वाले लोग क्यों अहं से भर सिर्फ अपने लिए सोचने लग जाते हैं? लोग हादसों से नहीं मरते, बल्कि उसके बाद उपजी हताशा और केवल अपनी जान बचाने के कारण मचती जद्दोजहद से मरते हैं।

इसके बावजूद कोई सबक नहीं लिया जाता। कुछ दिन तक दुहाई दी जाती है पर धरातल पर ऐसा कुछ नहीं किया जाता कि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो। जब तक पिछली घटनाओं से सबक जाएगा, तब तक इसी तरह भगदड़ मचती रहेगी।

धार्मिक स्थलों पर होने वाले हादसों को कैसे रोका जा सकता है? ऐसा क्या किया जाए, ताकि नयना देवी मंदिर और चामुंडा देवी मंदिर जैसे हादसे न दोहराए जाएं?

Wednesday, September 24, 2008

महिला उत्पीड़न कब तक ?

महिला उत्पीड़न के मामलों में हो रहा इजाफा चिंता का विषय है। ऐसा कोई दिन नहीं होता है, जब देशभर में कहीं न कहीं महिला उत्पीड़न के मामले सामने न आतें हों।

कभी किसी महिला का दहेज कम लाने के लिए उत्पीड़न होता है तो कभी किसी महिला का बेटी के पैदा होने पर भी उत्पीड़न किया जाता है। आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई न होने के कारण दहेज लोभियों के हौसले बढ़ रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए राज्य सरकारें भी खास गंभीर नहीं हैं।

महिला उत्पीड़न के बढ़ते मामलों में राज्य महिला आयोग भी कठघरे में हैं। घरेलू हिंसा, दहेज संबंधी मामलों में मानसिक व शारीरिक रूप से प्रताडि़त महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए गठित राज्य महिला आयोग में काफी मामले लंबित हैं।

अगर महिला आयोग ध्यान दें तो काफी हद तक ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है। आयोग को मजबूत बनाने के लिए सरकारें बड़े-बड़े दावे करती हैं, लेकिन घरेलू हिंसा और प्रताड़ना की शिकार महिलाएं वहां से न्याय न मिलने के कारण खुद को असहाय महसूस करती हैं।

महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के लिए सरकार की इच्छाशक्ति का अभाव झलकता है। सरकार को चाहिए कि बढ़ते महिला उत्पीड़न के मामलों को गंभीरता से ले। जब तक सरकार इन मामलों को गंभीरता से नहीं लेगी, तब तक महिला उत्पीड़न के मामलों में इजाफा होता रहेगा।

Sunday, September 14, 2008

हिंदी : कब बनेगी भारत के माथे की बिंदी?

राष्ट्रभाषा हिंदी की दुर्दशा जितनी भारत में है, उतनी अन्य किसी देश में उसकी मातृ भाषा के लिए देखने को नहीं मिलेगी। भारतीय संविधान में व्यवस्था के 58 साल बाद भी हिंदी व्यवहार में राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।

देश की आजादी के बाद जब अपना संविधान बना तो हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। व्यवस्था की गई कि 15 साल में ही हिंदी अपना उचित स्थान ले ले लेगी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। आज भी हिंदी अपना हक पाने के लिए जूझ रही है।

देश में हिंदी को बढ़ावा मिलने की बजाय अब इसके अस्तित्व का संकट उठ खड़ा हुआ है। पहले तो अधिकारीगण थोड़ी-बहुत हिंदी का प्रयोग कर भी लेते थे, लेकिन अब कांवेंटी शिक्षा पाए युवा अफसरों की फौज इसे और डुबाने में लगी हुई है। सरकारी मशीनरी भी भला हिंदी से परहेज क्यों न करे, जब देश के आला पदों पर बैठे लोग ही हिंदी को भुलाए बैठे हैं।